वांछित मन्त्र चुनें

च॒त्वारि॒ शृङ्गा॒ त्रयो॑ऽअस्य॒ पादा॒ द्वे शी॒र्षे स॒प्त हस्ता॑सोऽअस्य। त्रिधा॑ ब॒द्धो वृ॑ष॒भो रो॑रवीति म॒हो दे॒वो मर्त्याँ॒ २ऽआवि॑वेश ॥९१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

च॒त्वारि॑। शृङ्गा॑। त्रयः॑। अस्य॑। पादाः॑। द्वेऽइति॒ द्वे। शी॒र्षेऽइति॑ शी॒र्षे। स॒प्त। हस्ता॑सः। अ॒स्य॒। त्रिधा॑। ब॒द्धः। वृ॒ष॒भः। रो॒र॒वी॒ति॒। म॒हः। दे॒वः। मर्त्या॑न्। आ। वि॒वे॒श॒ ॥९१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:91


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब यज्ञ के गुणों वा शब्दशास्त्र के गुणों को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम जिस (अस्य) इसके (त्रयः) प्रातःसवन, मध्यन्दिनसवन और सायंसवन ये तीन (पादाः) प्राप्ति के साधन (चत्वारि) चार वेद (शृङ्गा) सींग (द्वे) दो (शीर्षे) अस्तकाल और उदयकाल शिर वा जिस (अस्य) इसके (सप्त, हस्तासः) गायत्री आदि छन्द सात हाथ हैं वा जो (त्रिधा) मन्त्र, ब्राह्मण और कल्प इन तीन प्रकारों से (बद्धः) बँधा हुआ (महः) बड़ा (देवः) प्राप्त करने योग्य (वृषभः) सुखों को सब ओर से वर्षानेवाला यज्ञ (रोरवीति) प्रातः, मध्य और सायं सवन क्रम से शब्द करता हुआ (मर्त्यान्) मनुष्यों को (आ, विवेश) अच्छे प्रकार प्रवेश करता है, उस का अनुष्ठान करके सुखी होओ ॥१ ॥९१ ॥ द्वितायपक्षः—हे मनुष्यो ! तुम जिस (अस्य) इसके (त्रयः) भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान तीन काल (पादाः) पग (चत्वारि) नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात चार (शृङ्गा) सींग (द्वे) दो (शीर्षे) नित्य और कार्य शब्द शिर वा जिस (अस्य) इसके (सप्त, हस्तासः) प्रथमा आदि सात विभक्ति सात हाथ वा जो (त्रिधा, बद्धः) हृदय कण्ठ और शिर इन तीनों स्थानों में बँधा हुआ (महः) बड़ा (देवः) शुद्ध, अशुद्ध का प्रकाशक (वृषभः) सुखों का वर्षानेवाला शब्दशास्त्र (रोववीति) ऋक्, यजुः, साम और अथर्ववेद से शब्द करता हुआ (मर्त्यान्) मनुष्यों को (आ, विवेश) प्रवेश करता है, उस का अभ्यास करके विद्वान् होओ ॥२ ॥९१ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उभयोक्ति अर्थात् उपमान के न्यूनाधिक धर्मों के कथन से रूपक और श्लेषालङ्कार है। जो मनुष्य यज्ञविद्या और शब्दविद्या को जानते हैं, वे महाशय विद्वान् होते हैं ॥९१ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ यज्ञादिगुणानाह ॥

अन्वय:

(चत्वारि) (शृङ्गा) शृङ्गाणीव चत्वारो वेदा नामाख्यातोपसर्गनिपाता वा (त्रयः) प्रातर्मध्यसायं सवनानि, भूतभविष्यद्वर्त्तमानाः काला वा (अस्य) यज्ञस्य शब्दस्य वा (पादाः) अधिगमसाधनानि (द्वे) (शीर्षे) शिरसी प्रायणीयोदयनीये, नित्यः कार्यश्च शब्दात्मानौ वा (सप्त) एतत्संख्याकानि गायत्र्यादीनि छन्दांसि, विभक्तयो वा (हस्तासः) हस्तेन्द्रियमिव (अस्य) (त्रिधा) त्रिभिः प्रकारैर्मन्त्रब्राह्मणकल्पैः, उरसि कण्ठे शिरसि वा (बद्धः) (वृषभः) सुखानामभिवर्षकः (रोरवीति) ऋग्वेदादिना सवनक्रमेण वा शब्दायते (महः) महान् (देवः) संगमनीयः प्रकाशको वा (मर्त्यान्) मनुष्यान् (आ, विवेश) आविशति। अत्राहुर्नैरुक्ताः—चत्वारि शृङ्गेति वेदा वा एत उक्तास्त्रयोऽस्य पादा इति सवनानि त्रीणि, द्वे शीर्षे प्रायणीयोदयनीये, सप्त हस्तासः सप्त छन्दांसि, त्रिधा बद्धस्त्रेधा बद्धो मन्त्रब्राह्मणकल्पैर्वृषभो रोरवीति। रोरवणमस्य सवनक्रमेण ऋग्भियजुर्भिः सामभिर्यदेनमृग्भिः शंसन्ति यजुर्भिर्यजन्ति सामभिः स्तुवन्ति। महो देव इत्येष हि महान् देवो यद्यज्ञो मर्त्याँ आ विवेशेत्येष हि मनुष्यानाविशति यजनाय ॥ (निरु०१३.७) पक्षान्तरं पतञ्जलिमुनिरेवमाह—चत्वारि शृङ्गाणि। चत्वारि पदजातानि नामाख्यातोपसर्गनिपाताश्च ॥ त्रयो अस्य पादाः। त्रयः काला भूतभविष्यद्वर्त्तमानाः ॥ द्वे शीर्षे। द्वौ शब्दात्मानौ नित्यः कार्यश्च ॥ सप्तहस्तासो अस्य। सप्त विभक्तयः ॥ त्रिधा बद्धः। त्रिषु स्थानेषु बद्ध उरसि कण्टे शिरसीति ॥ वृषभो वर्षणात् ॥ रोरवीति शब्दं करोति ॥ कुत एतत्? रौतिः शब्दकर्मा महो देवो मर्त्याँ आविवेशेति। महान् देवः शब्दो मर्त्या मरणधर्माणो मनुष्यास्तानाविवेश ॥ (महा०भा०अ०१. पा०१. आ०१) ॥९१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यूयं यस्यास्य त्रयः पादाश्चत्वारि शृङ्गा द्वे शीर्षे यस्यास्य सप्त हस्तासः सन्ति, यस्त्रिधा बद्धो महो देवो वृषभो यज्ञः शब्दो वा रोरवीति मर्त्यानाविवेश तमनुष्ठायाभ्यस्य च सुखिनो विद्वांसो भवत ॥९१ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोभयोक्त्या रूपकः श्लेषोऽलङ्कारश्च। ये मनुष्या यज्ञविद्यां शब्दविद्यां च जानन्ति, ते महाशया विद्वांसो भवन्ति ॥९१ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उभयोक्ती अर्थात उपमानाच्या न्यूनाधिक कथनाने रूपक व श्लेषालंकार आहेत. ज्या व्यक्ती यज्ञविद्या व शब्दविद्या जाणतात त्या विद्वान असतात.